साहित्य की दुनिया में महिलाओं का योगदान बहुत ज़रूरी रहा है । सदियों से अपनी ज़िंदगी की कहानियों को राइटिंग की शक्ल देकर उन्होंने अपनी आवाज़ दुनिया तक पहुंचती आई है। भारत और उसके पड़ोसी देशों की कई महिलाएं भी अपने अनुभवों और आसपास की सामाजिक व्यवस्थाओं के बारे में लिखकर साहित्यकार के तौर पर प्रसिद्ध हुईं हैं। अलग-अलग देशों में रहने के बावजूद दक्षिण एशिया के इंडियन सबकांटिनेंट की औरतों की सामाजिक परिस्थितियां लगभग एक जैसी हैं, जो उनके लेखन में साफ़ उभरकर आती हैं। आज हम मिलेंगे मौजूदा समय में दक्षिण एशिया की पांच ऐसी लेखिकाओं से,जो अपने लेखन के ज़रिए अपनी सामाजिक परिस्थितियों में औरत होने के अनुभव पर रोशनी डालती हैं ।
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मीना कंदस्वामी | साभार : Kandasamy.co.uk |
मीना एक कवियत्री हैं जिनकी कविताएं जाति, नारीवाद, और भाषा जैसे टॉपिक्स पर आधारित हैं । भारत में एक दलित औरत होने का अनुभव वे अपने लेखन में बखूबी बयान करती हैं। वे अंग्रेज़ी में लिखतीं हैं और साल 2001 से साल 2002 तक ‘दलित मीडिया नेटवर्क’ की द्विमासिक पत्रिका ‘द दलित’ की संपादक थीं। वे ‘टच’ और ‘मिस मिलिटेंसी’ नाम के दो कविता संकलन भी प्रकाशित कर चुकीं हैं और फ़िलहाल ‘कास्ट एण्ड द सिटी ऑफ़ नाइन गेट्स’ नाम के उपन्यास पर दिन रात काम कर रही हैं। आपको बताते चलें कि मीना ‘आउट्लुक इंडिया’ और ‘द हिंदू’ के लिए नियमित लिखतीं हैं और साथ में दलित लेखकों की किताबों का अंग्रेज़ी में अनुवाद भी करती हैं।
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कामिला शामसी | साभार : The Indipendent |
2. कामिला शामसी (पाकिस्तान)
कामिला भी अंग्रेज़ी में लिखती हैं और कहतीं हैं कि लिखने की प्रेरणा उन्हें कश्मीर के महान कवि आग़ा शाहिद अली से मिली। कॉलेज में रचनात्मक लेखन की पढ़ाई करते हुए उन्होंने अपना पहला उपन्यास ‘इन द सिटी बाइ द सी’ लिखा। राष्ट्रपति ज़िया-उल-हक़ के क्रूर, अत्याचारी शासन का वर्णन करता यह उपन्यास साल 1998 में बड़े स्तर पर प्रकाशित हुआ, जब कामिला 25 साल की थी। इनका दूसरा उपन्यास ‘सॉल्ट ऐंड सैफ्रन’ साल 2002 में आया जो पाकिस्तान में पारिवारिक और सामाजिक ज़िंदगीयों के बारे में है। कामिला की ज्यादातर कृतियां राजनीतिक घटनाओं से जुड़ी हैं। इसके साथ ही वह अपने नए उपन्यास ‘होम फायर’ (2017) के लिए वे ‘विमेंस प्राइज़ फ़ॉर फिक्शन’ जीत चुकीं हैं। यह उपन्यास इंसानों के सांस्कृतिक परिचय के विकास के बारे में हैं। कामिला मशहूर पाकिस्तानी पत्रकार मुनीज़ा शामसी की बेटी हैं।
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झमक घिमिरे | साभार : Enabled |
3. झमक घिमिरे (नेपाल)
झमक कुमारी घिमिरे जन्म से ‘सरीब्रल पॉल्ज़ी’ रोग से ग्रस्त हैं। इस बीमारी के कारण वे ठीक से बोल नहीं पाती और अपने हाथ नहीं चला पाती जिसके कारण उन्हें अपने बाएं पैर से लिखना पड़ता हैं। वह ‘कांतिपुर समाचार पत्र’ के लिए नेपाली भाषा में नियमित लेख लिखती हैं। झमक कुमारी के लेखन में नारीवादी दृष्टिकोण से सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों का विश्लेषण होता है। साल 2005 में वह नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुनी गई नौ नेपाली महिलाओं में से एक थीं। अपनी आत्मकथा ‘जीवन कांडा कि फूल?’ (‘जीवन कांटा है या फूल?’) के लिए झमक को नेपाल सरकार की ओर से प्रतिष्ठित ‘मदन पुरस्कार’ से नवाज़ा गया है। वह एक कवियत्री भी हैं और अपनी कविताओं के चार संकलन प्रकाशित कर चुकी हैं। एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया है कि उनकी आत्मकथा का अंग्रेज़ी अनुवाद जल्द ही आने वाला है ।
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पुरबी बसु | साभार : Wikipedia |
4. पुरबी बसु (बांग्लादेश)
डॉ पुरबी बसु पेशे से फार्मकोलोजिस्ट यानी औषध विज्ञानी हैं और अमेरिका के मिसूरी विश्वविद्यालय से पीएचडी हैं। वे अपनी ही मातृभाषा बंगाली में लघुकथाएं लिखतीं हैं। उनकी कहानियां सशक्त महिला किरदारों के बारे में हैं जो अपने आस-पास की पितृसत्तात्मक दुनिया में खुद के लिए थोड़ी बहुत जगह बना लेती हैं और कुछ हद तक अपने लिए स्वतंत्रता हासिल कर लेती हैं। उनकी कहानियों का पहला संकलन साल 2009 में प्रकाशित हुआ था
जिसमें ‘राधा आजके रांधिबे ना’ (राधा आज खाना नहीं बनाएगी) और ‘सलेहा र इच्छा ऑनिच्छा’ (सलेहा की पसंद-नापसंद) जैसी कहानियां शामिल हैं। साल 2013 में उन्हें ‘बांग्ला अकादमी साहित्य पुरस्कार’ से भी नवाज़ा जा चुका है।
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रू फ़्रीमैन | साभार : O/R Books |
5. रू फ़्रीमैन (श्री लंका)
रू लेखिका के साथ साथ अध्यापिका और मानवाधिकार कार्यकर्ता भी हैं। उन्होंने लंबे समय तक मध्य-पूर्वी देशों में महिला प्रवासी मजदूरों पर शोधकार्य किया है। रू वॉशिंगटन डी.सी. के ‘इंस्टिट्यूट फ़ॉर पॉलिसी स्टडीज़’ की आपदा राहत योजनाओं में काम कर चुकी हैं। उनकी कृतियां भी निम्न वर्ग से आनेवाली महिला किरदारों के आसपास रची गई हैं। उनका पहला उपन्यास ‘अ डिसोबीडीयंट गर्ल’ तीन महिला किरदारों के नज़रिए से श्री लंका के इतिहास और वर्ग के आधार पर होने वाले भेदभाव की समस्या का वर्णन करता है। उनका दूसरा उपन्यास ‘ऑन साल माल रोड’ सामाजिक समुदायों पर युद्ध के प्रभाव के बारे में हैं। अपने लेखन के ज़रिए वे खासतौर पर वर्ग के आधार पर होने वाले भेदभाव और संघर्ष पर नज़र डालतीं हैं। वे ‘बॉस्टन ग्लोब’, ‘गार्डियन’, और ‘न्यू यॉर्क टाइम्स’ जैसे समाचार पत्रों के लिए भी नियमित लेख लिखतीं हैं।
सिर्फ़ यही चंद महिलाएं नहीं हैं, इन सभी देशों में ऐसी कई महिला साहित्यकार हैं, जिन्होंने अंग्रेज़ी और अपनी मातृभाषा में लेखन के ज़रिए अपने देश और समाज के मुद्दों की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित किया है। अपनी कहानियां दुनियाभर की औरतों तक पहुंचाई हैं, ताकि उन्हें पता चले कि इस पितृसत्तात्मक दुनिया में वे अकेली नहीं हैं। उम्मीद है हम ऐसी और लेखिकाओं को पढ़ पाएं और दुनिया बदलने की प्रेरणा उनसे ले सकें।
लेखक : इंजीनियर मनीष कुमार ( सासाराम की गलियां )